बहुत ही सुदंर भगवान राम जी की महीमा
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रामजी के वनवास काल में, घोर घने वन में चलते हुए, रामजी आगे चलते, सीताजी बीच में और लक्ष्मणजी सबसे पीछे चलते।
सीताजी रामजी के चरणचिन्हों पर पैर नहीं रखतीं, लक्ष्मणजी दोनों के ही चरणचिन्हों पर पैर नहीं धरते, थोड़ा हट कर चलते हैं, कि कहीं भगवान और माँ के चरणचिन्ह मिट न जाएं।
जहाँ पगडंडी पतली आ जाए तो लक्ष्मणजी को पगडंडी से उतर कर झाड़ झंझाड़ में चलना पड़े, और पैरों में काँटे चुभ जाएं।
पर वे उफ ना करें, शिकायत ना करें। यों चलते चलते पैर में काँटे ही काँटे हो गए, पैर धरते हैं तो पैर भूमि को छूता ही नहीं, काँटे ही छूते हैं, उन्होंने तो कहा नहीं, पर दर्द असहनीय हो गया तो भगवान ने सहसा ही यात्रा रोक दी।
लक्ष्मणजी को गोद में उठाकर एक शिला पर बिठाया, स्वयं नीचे बैठकर पैरों से काँटे निकालने लगे, और अपने आँसुओं से धोकर पैरों को स्वस्थ कर दिया।
अब रामजी ने चलने का क्रम उलट दिया, लक्ष्मणजी को आगे कर दिया, सीताजी बीच में ही रहीं और रामजी पीछे पीछे चलने लगे।
समझे? अरे मुसाफिरों! कष्ट तो प्रारब्ध का है। भगवान के मार्ग पर चलो या ना चलो, आएगा ही। पर अगर भगवान के मार्ग पर चले, कष्ट सहते चले गए, उफ न की, रुके नहीं, लौटे नहीं, तो वह दिन आता है जब भगवान स्वयं आपके कष्ट दूर कर देते हैं।
और फिर आपको उनके पीछे नहीं चलना पड़ता, वे ही आपके पीछे पीछे चलने लगते हैं।
यह बात ध्यान रखना॥,,,,